अन्नदाता! करो प्रणाम स्वीकार
हिमनदियां तुमसे मिलने आ रहीं हैं.
देख तुम्हारी मेहनतकश आभाओं को
धूप को ढककर मेघ बदलियां छा रहीं हैं
प्रफुल्ल हृदय तुम्हारा हो यही बस कामना रही
करो तैयारी उत्सव की ऋतुएं मल्हार गा रहीं हैं.
नहरें खेतों की प्यास नित्य बुझा हैं रहीं
फसल अन्नदाता की है अब लहलहा रहीं हैं.
बालियां अनाज की खेतों से हैं घर आ रहीं
तूने उपजाया इन्हें ये जीवों की भूख़ मिटा रहीं हैं.
0 Comments